सफात आलम तैमी

रमज़ान के बाद सब से अफज़ल रोज़े मुहर्रम के रोज़े हैं. (मुस्लिम 1136)

रमज़ान के बाद सब से अफज़ल रोज़े मुहर्रम के रोज़े हैं. (मुस्लिम 1136)

सत्य और असत्य दो अलग अलग चीज़ है, जिसका एक साथ इकट्ठा होना असम्भव है. परन्तु सत्य और असत्य के युद्ध में  अस्थायी रूप में सत्य असत्य में खो जाता है. ऐसा हर युग में होता आया है और आज भी हो रहा है, इस्लाम सब से पहला धर्म और पहला सत्य है और उसका सबसे पहला निमंत्रण एकेश्वरवाद है, इसके बावजूद जिन्नात और इनसानों के शैतानों ने हर युग में इंसानों को शिर्क में ग्रस्त रखा, और हकीकत मिथ्या में खोती रही,  इसी तथ्य की तह से पर्दा उठाने के लिए हर युग में संदेष्टा भेजे गए, लाखों संदेष्टाओं के निमंत्रण के बावजूद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आगमन के समय सारा संसार कुफ्र और मूर्तिपूजा से जूझ रहा था, केवल इस आधार पर कि तथ्य मिथ्या में खो चुका था, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने 23 वर्षीय जीवन में सत्य और असत्य का ऐसा स्पष्ट अवधारणा पेश किया कि उसकी रात दिन के समान हो गई, लेकिन बुरा हो अज्ञानता और मन की इच्छाओं का कि गुज़रते दिनों के साथ साथ यह समुदाय अपने नबी की शिक्षाओं से दूर होती गई, उम्मत का एक बड़ा समूह पथ-भ्रष्ठता का शिकार हो गया, फिर सत्य के स्थान पर असत्य को प्रसिद्धता मिलने लगी और प्रथायें हर जगह प्रचलित हो गईं। आज भारतीय उप-महाद्वीप में ऐसे अनगिनत काम पाये जाते हैं जो वास्तव में इनसानों के पैदा किए हुए हैं लेकिन धर्म के नाम पर मुस्लिम समाज का भाग बन चुके हैं।  

मुहर्रम एक सम्मानित महीना हैः

मुहर्रम का यह महीना जिस से अभी हम गुजर रहे हैं, बहुत महत्व रखने वाला महीना है, यह महीना उन चार प्रतिष्ठित महीनों में से एक है जिस में विशेषकर अल्लाह पाक ने अपनी जानों पर अत्याचार को वर्जित ठहराया है, अल्लाह ने कहाः

 إِنَّ عِدَّةَ الشُّهُورِ عِندَ اللَّـهِ اثْنَا عَشَرَ شَهْرًا فِي كِتَابِ اللَّـهِ يَوْمَ خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ مِنْهَا أَرْبَعَةٌ حُرُمٌ ۚ ذَٰلِكَ الدِّينُ الْقَيِّمُ ۚفَلَا تَظْلِمُوا فِيهِنَّ أَنفُسَكُمْ ۚ    سورة التوبة 36

निस्संदेह महीनों की संख्या – अल्लाह के अध्यादेश में उस दिन से जब उसने आकाशों और धरती को पैदा किया – अल्लाह की दृष्टि में बारह महीने है। उन में चार आदर के हैं, यही सीधा दीन (धर्म) है। अतः तुम उन (महीनों) में अपने ऊपर अत्याचार न करो। (सूरः तौबा 36)

उपर्युक्त आयत में इन चार महीनों (ज़ुलकादा, ज़ुलहिज्जा, मुहर्रम और रजब) में अपनी जान पर अत्याचार करने से रोक दिया गया है, अत्याचार तो वैसे भी साल के बारह महीने हराम है, लेकिन इन चार महीनों में विशेष रूप में अत्याचार की मनाही और बढ़ जाती है. यही कारण है कि अज्ञानता काल में भी लोग इन चार महीनों की महानता का ध्यान रखते थे और उन में हत्या और कत्ल से बचते थे. इस लिए मुहर्रम के महीने में खास तौर पर पापों से बचना चाहिए और नेकियों के काम अधिक से अधिक करने चाहिएं।

इन दिनों के नेक कामों में रोज़ा को बहुत महत्व प्राप्त है, क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

أفضل الصیام بعد رمضان شھر اللہ المحرم – مسلم 1136  

 रमज़ान के बाद सब से अफज़ल रोज़े मुहर्रम के रोज़े हैं. (मुस्लिम 1136)

पता यह चला कि इस महीने में नफली रोज़ों का एहतमाम अधिक से अधिक करना चाहिए. खास तौर पर आशूरा के दिन अर्थात् दस मुहर्रम का रोज़ा अवश्य रखना चाहिए। क्यों कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब तक मक्का में रहे उस दिन का रोज़ा रखते रहे, जब मदीना आए तो ख़ुद रखा और सहाबा को भी रखने का आदेश दिया, लेकिन जब रमज़ान के रोज़े अनिवार्य हो गए तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को अनुमति दे दी कि जो चाहे रखे और जो चाहे न रखे. (सही बुखारी 2001,2003 सही मुस्लिम: 1125)

आशूरा का रोज़ा क्यों ?

आप पूछ सकते हैं कि आशूरा के दिन का रोज़ा क्यों रखा जाता है? तो इस संबंध में हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आये तो देखा कि यहूद आशूरा के दिन रोज़ा रखते हैं,  आप ने उन से पूछा: तुम उस दिन का रोज़ा क्यों रखते हो? उन्होंने कहाः

ھذا یوم عظیم أنجی اللہ فیہ موسی وقومہ وأغرق فرعون وقومہ فصامہ موسی شکرا فنحن نصومہ 

“यह महान दिन है, इस में अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और उनके समुदाय को मुक्ति प्रदान की थी तथा फिरऔन और उसकी सेना को डबो दिया था। अतः मूसा अलैहिस्सलाम ने शुकराने के तौर पर उस दिन का रोज़ा रखा था इसलिए हम भी इस दिन का रोज़ा रखते हैं. इस पर आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने कहाः

فنحن أحق وأولی بموسی منکم 

“तब तो हम मूसा अलैहिस्सलाम का अधिक अधिकार रखते हैं और हम उन से तुम्हारी तुलना में ज़्यादा करीब हैं. ” फिर आप ने स्वयं इस दिन का रोज़ा रखा और अपने सहाबा को भी उस दिन रोज़ा रखने का आदेश दिया. (सही बुखारी: 2004, मुस्लिम 1130)

और जब आशूरा के रोज़े के महत्व के बारे में पूछा गया तो आपने कहा:

یکفر السنة الماضیة  صحیح مسلم 1162

पिछले एक साल के पाप क्षमा कर देए जाते हैं. (मुस्लिम 1162)

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अंतिम समय तक आशूरा का रोज़ा रखते रहे, लेकिन मृत्यु से एक साल पहले आप से कहा गया कि इसी दिन यहूद भी रोज़ा रखते हैं, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा:

 فاذا کان العام المقبل ان شاءاللہ صمنا الیوم التاسع   صحیح مسلم1134 

जब अगले साल आएगा तो हम (दस मुहर्रम के साथ) नौ मुहर्रम का रोज़ा भी रखेंगे। (सही मुस्लिमः 1134)

लेकिन मुहर्रम तक आप जीवित न रह सके, और रबियुल अव्वल ही में दुनिया से चले गए. इस लिए दस मुहर्रम के साथ नौ मुहर्रम का रोज़ा भी रखना चाहिए. और यदि 9 को न रख सके तो दस और ग्यारह को रख लेना चाहिए।  

मुहर्रम में हमारे हबीब की सुन्नत यह है कि अधिक से अधिक रोज़े का एहतमाम किया जाए, खासतौर पर आशूरा के दिन उस ऐतिहासिक घटना को ताजा करते हुए रोज़े रखे जाएं जिस दिन सत्य की जीत हुई थी और और असत्य पराजित हुआ था। जिस दिन मूसा अलैहिस्सलाम को फिरऔन के चंगुल से मुक्ति मिली थी और फिरऔन अपनी सेना सहित समुद्र में डूब कर हमेशा के लिए पाठ बन गया था, इस लिए हर युग में अल्लाह वालों ने इस दिन रोज़ा रखने का एहतमाम किया, यही है आशूरा की हक़ीक़त और बस.

हक़ीक़त खुराफात में खो गईः

लेकिन अल्लाह की चाहत हुई कि सन् 61 हिजरी में आशूरा ही के दिन एक हृदय विदारक दुर्घटना घटी यानी फातिमा के लाल और रसूले पाक के नवासे हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु मैदाने कर्बला में शहीद हो गए। यहीं से इतिहास ने ऐसा रुख बदला कि पिछली सारी सच्चाईयाँ मन मस्तिष्क से ओझल हो गईं और इस उम्मत का एक वर्ग परंपराओं में खोकर रह गया, इस प्रकार यदि एक ओर हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु के हत्यारों ने अच्छे वस्त्र पहनने, अच्छे भोजन पकाने और सुर्मा लगाने की बिदअत इजाद की तो दूसरी ओर हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से स्नेह रखने वालों ने इस दिन को ग़म और शोक का दिन बना लिया. दुर्भाग्य से अहले सुन्नत के अज्ञानी जनता में दोनों धारणायें प्रचलित हो गईं, अब उन में एक वर्ग आशूरा के संबंध में नबवी विधि को भुला कर बिदअत का चोर दरवाज़ा खोल रखा है हालांकि सुन्नत का तरीक़ा यह था कि हम उस दिन रोज़ा रखते।  

हक़ीक़त ख़ुराफात में खो गई

यह उम्मत परंपराओं में खो गई

 

अहलेबैत से प्रेम हमारे ईमान का प्रतीक है, और शहादते हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की दर्दनाक घटना को सुन कर इस उम्मत का हर व्यक्ति बेचैन और परेशान हो जाता है, उसकी आँखें बहने लगतीं और दिल बेचैन हो जाता है, लेकिन एक मुस्लिम पर लाख परेशानियां आ जाएं वह इस्लामी सीमा को पार नहीं कर सकता, शरीयत ने संकट के समय धैर्य का आदेश दिया है और सीना पीटने और मातम करने को सख्त वर्जित सिद्ध किया है, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः

لیس منا من لطم الخدودوشق الجیوب ودعا بدعوی الجاھلیة . صحیح البخاری 1294

“वह व्यक्ति हम में से नहीं जो गाल पर तमाचे मारे, गरेबान चीरे और अज्ञानता काल की पुकार पुकारे।

फिर शरीअत ने मृतक पर सोग मनाने की अवधि तीन दिन ही रखी है, सिवाय उस महिला के जिसके पति का देहांत हो गया हो, क्योंकि वह चार महीने और दस दिन शोक मनाएगी। (बुखारी, मुस्लिम)

हालांकि शहादते हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु को एक जमाना बीत गया, आख़िर अब तक नौहा और मातम करना क्यों कर सही हो सकता है? और इतिहास में मात्र  शहादते हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की ही घटना पेश नहीं आई बल्कि पहले भी हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु के पिता हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु निहायत बे दरदी के साथ शहीद कर दिए गए जो सबके नज़दीक हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से बेहतर थे, उन से पहले तीसरे खलीफा हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत की दुखद घटना घटी जो हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से बेहतर थे, उन से पहले अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ससुर हज़रत उमर फारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत की घटना इसी मुहर्रम की पहली तिथि को पेश आई लेकिन इनमें से किसी के शहादत के दिन को मातम का दिन मनाना हमारे लिए वैध नहीं तो आख़िर हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत पर मातम करना क्यों कर वैध हो सकता है।

जीवित समुदाय हमेशा अपने नवीन वर्ष का स्वागत उत्साह और दृढ़ संकल्प के साथ करते हैं, अपनी गलतियों पर रोने और मातम करने की बजाय साहस और संकल्प के साथ आने वाले वर्षों के लिए योजना बनाते हैं. यही समझदारी की पहचान है अन्यथा अतीत की गलतियों पर आंसू बहाना, और वर्ष के आरंभ ही से रोना धोना शुरू कर देना पराजित समुदायों की पहचान है, अफसोस कि भारत में अहले सुन्नत की एक बड़ी संख्या आशूरा के दिन सुन्नत के अनुसार रोज़ा रखने की बजाए ताज़िया बनाती और नौहा मातम करती है और इस प्रकार के जुलूसों में तमाशा देखने के लिए उपस्थित होती हैं.

आज जरूरत है कि हमारे वक्ता और योद्धा जनता के सामने इस अवसर पर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और फिरऔन की घटना बयान करें, मुहम्मद सल्ल. की हिजरत और उस से प्राप्त होने वाले पाठ की चर्चा करें, मुहर्रमु हराम के महत्व पर प्रकाश डालें और कर्बला की घटना में जो रंग घोला गया है इस तथ्य से लोगों को अवगत करायें ताकि वास्तविकता खुल कर सब के सामने आ सके।

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