नमाज़ में ख़ुशू (विनम्रता) कैसे लायें? नमाज़ का आनंद कैसे प्राप्त करें? यह वह सवाल है जो हर नमाज़ी के दिल की आवाज है। आज हर व्यक्ति की शिकायत है कि नमाज़ में हमारा ध्यान इधर उधर भटकने लगता है, तो लीजिए यह लेख पढ़ें और नमाज़ की स्थिति में ध्यान को आकर्षित करने का नियम जानिए
ख़ुशूअ (विनम्रता) क्या है?
मौलाना अबुल आला मौदूदी रहिमहुल्लाह लिखते हैं: ” ख़ुशूअ (विनम्रता) का मूल अर्थ है किसी के आगे झुक जाना, दब जाना, अभिव्यक्ति व्यक्त करना। इस स्थिति का संबंध दिल से भी है और शरीर की उपस्थिति से भी। दिल की विनम्रता यह है कि आदमी किसी के भय और जलाल से भयभित हो और शरीर की विनम्रता यह है कि जब वह उसके सामने जाए तो सिर झुक जाए, अंग ढीले पड़ जाएं, पस्त हो जाएं, आवाज दब जाए, और भय के वह सारे आसार उस पर तारी हो जाएं जो इन परिस्थितियों में प्राकृतिक रूप में तारी होती हैं जबकि आदमी किसी जबरदस्त हस्ती के सामने पेश हो, नमाज़ में विनम्रता का मतलब दिल और शरीर की यही स्थिति है और यही नमाज़ की मूल आत्मा है “। (तफ्हिमुल कुरआन, तफसीर सूरः अल-मुमिनून 2)
ख़ुशूअ (विनम्रता) का महत्व
आज कितने ऐसे लोग हैं जो पाँच समय की नमाज़ें अदा करने के बावजूद विभिन्न प्रकार की बुराइयों में फंसे रहते हैं हालांकि कुरआन कहता है कि नमाज़ बे हयाई और बुरी बातों से रोक देती है। सवाल यह है कि ऐसे आदमी को नमाज़ अभद्रता और बुरी बातों से क्यों नहीं रोक पा रही है? तो इसका दो टोक जवाब यह है कि वे नमाज़ तो अदा करते हैं लेकिन उनकी नमाज़ें बेजान होती हैं, उस समय तो दिल बड़ा खुश होता है जब हम नमाज़ के आदी नूरानी चेहरों को मस्जिद की ओर दौड़ते देखते हैं लेकिन मस्जिद में उपस्थित होने के बाद हमारी अधिकता नमाज़ का हक़ अदा नहीं कर पाती, आमतौर पर हमारी नमाज़ों में अनावश्यक हरकतें होती हैं, सह्व और भूलचूक हावी होता है, विनम्रता का अभाव होता है। तकबीरे तहरीमा से सलाम फेरने तक हम अपने विचार की दुनिया और व्यापार में संलग्न रहते हैं, शरीर नमाज़ में होता है और खुशूअ नमाज़ से बाहर, अल्लामा इकबाल ने हमारी इस हालत की सही व्याख्या की है
सफें कज दिले परीशान सज्दा बे ज़ौक़
कि जज़्बे अन्दरूं बाकी नहीं है
नमाज़ में विनम्रता की इतनी अहमियत है कि अल्लाह तआला ने कल्याण को विनम्रता के साथ नमाज़ अदा करने पर आधारित किया है, अतः अल्लाह ने कहा:
قَدْ أَفْلَحَ الْمُؤْمِنُونَ ﴿١﴾ الَّذِينَ هُمْ فِي صَلَاتِهِمْ خَاشِعُونَ سورة المومنون 1-2
“सफल हो गए ईमान वाले, (1) जो अपनी नमाज़ों में विनम्रता अपनाते हैं”।
और जो नमाज़ विनम्रता से अदा की जाती है उसकी अदाएगी बहुत सुविधाजनक और आसान हो जाती है और नमाज़ में अजीब तुष्टि मिलती है इरशाद बारी तआला है:
وَإِنَّهَا لَكَبِيرَةٌ إِلَّا عَلَى الْخَاشِعِين سورة البقرة 45
“और निस्संदेह यह (नमाज) बहुत कठिन है, किन्तु उन लोगों के लिए नहीं जिनके दिल पिघले हुए हों” (सूरः अल-बक़रः 45)
जब नमाज़ में विनम्रता आती है तो आंखों से आंसू जारी हो जाते हैं, दिल दहलने लगता है, जबकि विनम्रता के अभाव से आत्मा और बदन पर नमाज़ का कोई असर नहीं पड़ता, नमाज़ में दिल नहीं लगता, नमाज़ बोझ बन जाती है, और मन में बार बार यह विचार उठता है कि कब नमाज़ ख़त्म हो जाए।
विनम्रता का अभाव क्यों?
नमाज़ में एक बंदा अपने रब से बात करता और उसके सामने अपना वांछित रखता है लेकिन शैतान जो सच्चाई के रास्ते का डाकू और मनुष्य का पुराना दुश्मन है उसे कब भाता कि इंसान इतने उच्च स्थान पर पहुंच कर अपने रब से पूरी विनम्रता और एकाग्रता के साथ बात कर सके, इस लिए वह आगे से पीछे से, दायें से, बाएँ से हर ओर से आ कर बनदे को विभिन्न संसाधनों द्वारा नमाज़ से दूर रखने की कोशिश करता है, यदि इस से आजिज़ आ जाए तो नमाज़ की हालत में उसके मन में विभिन्न प्रकार के विचार पैदा करना चाहता है, उसे वह बातें याद दिलाता है जिन्हें वह नमाज़ से बाहर बिल्कुल भूला हुआ था। सिर्फ इसलिए ताकि बंदा रबकी मुनाजात से वंचित रह जाए। परन्तु इस महरूमी के पीछे खुद बंदा की व्यक्तिगत कोताही का हस्तक्षेप होता है। उदाहरण स्वरूप
*पुरुषों के लिए मस्जिद में पाँच समय की नमाज़ों की अदाएगी में कोताही।
* सुन्नतों और नफिल नमाज़ों की अदाएगी में सस्ती।
*दनियावी मामलों में अधिक एकाग्रता।
*ज़िक्र के एहतमाम में कोताही और दीनी सभाओं में उपस्थित न होना।
*कबर और उस की वहशत और उसके बाद की स्थिति पर विचार करना। यह वह कारण हैं जिनकी वजह से नमाज़ की विनम्रता प्रभावित होती है।
विनम्रता और सलफः
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पवित्र जीवनी में झांक कर देखें कि जब आप मुअज्जिन की आवाज सुनते तो सारी मशगूलियतों को छोड़कर मस्जिद का रुख करते थे। सही बुखारी की रिवायत है, एक दिन अस्वद रहिमहुल्लाह ने सय्यिदा आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से पूछा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने घर में क्या करते थे? तो आपने फरमाया:
كان يكونُ في مهنةِ أهلِه تعني خدمةَ أهلِه فإذا حضرتِ الصلاةُ خرجَ إلى الصلاة صحیح البخاری: 676
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने परिवार की सेवा में लगे रहते थे लेकिन जब अज़ान हो जाती तो प्रार्थना के लिए निकल जाते थे।(सही बुख़ारीः 676)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन शिख़्खीर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है:
أتيتُ النَّبيّ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّمَ وهو يُصلِّي، ولِجَوفِه أزيزٌ كأزيزِ المِرجَلِ من البُكاءِ تخریج مشکاۃ المصابیح للألبانی 959
“मैं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सेवा में उपस्थित हुआ तो आप नमाज़ अदा कर रहे थे, मैंने देखा कि आपके सीने से रोने की वजह से इस तरह आवाज निकल रही थी जैसे चूल्हे पर रखी हुई हानडी से निकलती है”। (तख़रीज मिश्कातुल मसाबीह 959)
कोई यह कह सकता है कि वह तो रसूलुल्लाह थे, उन में और हम में क्या तुलना तो लीजिए सलफ सालिहीन और अल्लाह वालों की जीवनी से कुछ नमूने प्रस्तुत हैं:
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ज़ैनुल आबिदीन अली बिन हुसैन रहिमहुल्लाह जब वुज़ू से फारिग़ होते तो नमाज़ और वुज़ू के बीच आपके शरीर में कपकपी तारी हो जाती थी। जब आपसे इसका कारण पूछा गया तो आप ने फरमाया: